शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

RIP Jyoti Singh

"ज्योति" थी वो ज्योति जलाकर चली गई।
सभ्य समाज के स्याह चेहरे से नकाब हटा कर चली गई।

"ज्योति" ने दस्तक दी , क्या सुन रहे हो तुम।
आँखें खुली,जमीर जगाये रखना , देखना किसी कोने में फिर से कोई "ज्योति न हो।

"ज्योति" की अंतिम इच्छा , पापियों को जलाया जाये।
जानता हूँ सरकारे ये काम नहीं करेगी , चलो कुछ यूँ करते है ,
अपने भीतर के रावण को जलाया जाये।


मुश्किलों का दौर है , मुश्किलों से जायेगा।
वर्षों की नींद है , जागने में वक्त तो लग जायेगा।

दर्द हो दिल में तो आह निकलनी चाहिए।
जरूरत हो तो वतन के लिए साँस निकलनी चाहिए।

गठ्बंधन से सब चलता ,बिकता  और नीलाम है।
बहन बेटियां बिके  जिस देश, देश बिके क्यों हराम है!

ईमानदार की इज्जत नही, बेईमान को मिले सम्मान।
नारी की जहाँ नही इज्जत , मालिक उस देश का भगवान।

बहुत जरूरी था तबाही से बचना परवानों .
वो आयी पिछले दरवाजे से, और सामने का दरवाजा बंद था यारों।

खुले बाजार के दौर में खुला बड़ा व्यापार है।
सामान चाहे कोई हो, नारी देह आधार  है।

जो सो रहे है उनको जगाना है।
अँधेरा बाहर नहीं होता ,भीतर से भगाना है।

तुझे दुनिया में लाने  का दर्द बहुत था, कम लगा।
तेरा राह में परेशां करना कुछ नहीं था, बहुत लगा।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें